1 जनवरी 2026 से देश में लागू होगा 8th Pay Commission,

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आठवां वेतन आयोग, जिसे केंद्र सरकार ने जनवरी 2025 में मंजूरी दी, 1 जनवरी 2026 से लागू होने की संभावना है। यह आयोग केंद्रीय कर्मचारियों और पेंशनभोगियों के वेतन, भत्तों और पेंशन में संशोधन के लिए गठित किया गया है। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव के अनुसार, यह 48.67 लाख कर्मचारियों और 67.95 लाख पेंशनभोगियों को लाभ देगा। सातवां वेतन आयोग, जो 2016 में लागू हुआ, 31 दिसंबर 2025 को समाप्त होगा। आठवें वेतन आयोग के तहत न्यूनतम बेसिक वेतन ₹18,000 से बढ़कर ₹34,560-₹51,480 हो सकता है, जो 2.57 से 2.86 के फिटमेंट फैक्टर पर निर्भर करेगा। पेंशन में भी लगभग ₹17,280 तक की वृद्धि संभावित है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि संदर्भ शर्तों (ToR) और बजटीय आवंटन में देरी के कारण कार्यान्वयन में कुछ विलंब हो सकता है। आयोग को अपनी सिफारिशें तैयार करने में 18-24 महीने लग सकते हैं। कर्मचारी और पेंशनभोगी उम्मीद कर रहे हैं कि यह आयोग महंगाई और आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर उनकी आय में सुधार करेगा, जिससे उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी।

ट्रंप की जापान डील: 550 अरब डॉलर निवेश, 90% मुनाफा, 15% टैरिफ लागू

ट्रंप की जापान डील: 550 अरब डॉलर निवेश, 90% मुनाफा, 15% टैरिफ लागू

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जापान के साथ एक ऐतिहासिक व्यापार समझौते को अंतिम रूप देने की घोषणा की है, जो वैश्विक व्यापार और आर्थिक नीतियों के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। इस समझौते के तहत 550 अरब डॉलर का भारी-भरकम निवेश किया गया है, जिसका लक्ष्य 90% मुनाफा हासिल करना है। साथ ही, इस डील में 15% टैरिफ लागू करने का प्रावधान भी शामिल है, जो अमेरिकी हितों को प्राथमिकता देने और घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देने की ट्रंप की रणनीति को दर्शाता है। यह समझौता न केवल अमेरिका और जापान के बीच आर्थिक संबंधों को मजबूत करता है, बल्कि वैश्विक व्यापार संतुलन को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

समझौते का महत्व और पृष्ठभूमि

जापान और अमेरिका के बीच व्यापारिक संबंध हमेशा से ही रणनीतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण रहे हैं। जापान, जो दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, अमेरिका का एक प्रमुख व्यापारिक साझेदार रहा है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में दोनों देशों के बीच व्यापार असंतुलन, विशेष रूप से ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्रों में, चर्चा का विषय रहा है। ट्रंप ने अपने कार्यकाल के दौरान और उसके बाद भी “अमेरिका फर्स्ट” नीति को प्राथमिकता दी, जिसके तहत उन्होंने विदेशी आयात पर टैरिफ बढ़ाने और घरेलू उद्योगों को संरक्षण देने पर जोर दिया। इस समझौते को इसी नीति का विस्तार माना जा सकता है।

550 अरब डॉलर का निवेश इस समझौते का सबसे आकर्षक पहलू है। यह निवेश न केवल जापानी कंपनियों को अमेरिकी बाजार में और अधिक अवसर प्रदान करता है, बल्कि अमेरिकी कंपनियों को भी जापान में अपने पैर जमाने का मौका देता है। इस निवेश का एक बड़ा हिस्सा प्रौद्योगिकी, ऑटोमोबाइल, और नवीकरणीय ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में केंद्रित है। इसके अलावा, इस समझौते के तहत जापानी उत्पादों पर 15% टैरिफ लागू किया गया है, जिसका उद्देश्य अमेरिकी घरेलू उद्योगों, विशेष रूप से ऑटोमोबाइल और स्टील उद्योग, को प्रतिस्पर्धी लाभ प्रदान करना है।

90% मुनाफे का लक्ष्य

90% मुनाफे का लक्ष्य इस समझौते का सबसे महत्वाकांक्षी हिस्सा है। यह आंकड़ा न केवल निवेशकों और नीति निर्माताओं का ध्यान खींचता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि ट्रंप की टीम ने इस डील को डिजाइन करने में उच्च रिटर्न को प्राथमिकता दी है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, समझौते में कई रणनीतिक उपाय शामिल किए गए हैं। उदाहरण के लिए, जापानी कंपनियों को अमेरिका में अपनी उत्पादन इकाइयां स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है, जिससे नौकरियों का सृजन होगा और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा। इसके बदले में, जापान को अमेरिकी प्रौद्योगिकी और ऊर्जा क्षेत्र में निवेश के अवसर प्राप्त होंगे।

टैरिफ का प्रभाव

15% टैरिफ का लागू होना इस समझौते का एक विवादास्पद पहलू है। टैरिफ का उद्देश्य जापानी आयात को नियंत्रित करना और अमेरिकी उत्पादों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाना है। हालांकि, कुछ आलोचकों का मानना है कि इससे जापानी उत्पादों की कीमतें बढ़ सकती हैं, जिसका असर उपभोक्ताओं पर पड़ सकता है। दूसरी ओर, समर्थकों का कहना है कि यह कदम अमेरिकी उद्योगों को संरक्षण प्रदान करेगा और लंबे समय में स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा देगा।

वैश्विक और क्षेत्रीय प्रभाव

यह समझौता न केवल अमेरिका और जापान के लिए, बल्कि वैश्विक व्यापार के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह Indo-Pacific क्षेत्र में आर्थिक सहयोग को बढ़ावा दे सकता है और चीन जैसे अन्य प्रमुख खिलाड़ियों के साथ प्रतिस्पर्धा में अमेरिका-जापान गठजोड़ को मजबूत कर सकता है। इसके अलावा, यह डील अन्य देशों के साथ व्यापारिक समझौतों के लिए एक मॉडल के रूप में काम कर सकती है।

निष्कर्ष

ट्रंप की जापान के साथ यह डील एक रणनीतिक और आर्थिक मास्टरस्ट्रोक मानी जा रही है। 550 अरब डॉलर का निवेश, 90% मुनाफे का लक्ष्य, और 15% टैरिफ के साथ, यह समझौता अमेरिका की व्यापार नीति में एक नया अध्याय जोड़ता है। हालांकि, इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि दोनों देश इस समझौते को कितनी प्रभावी ढंग से लागू कर पाते हैं और वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों का सामना कैसे करते हैं।

UNESCO से बाहर होगा America

**यूनेस्को से अमेरिका का बाहर होना: कारण और प्रभाव**

 

संयुक्त राज्य अमेरिका ने हाल ही में घोषणा की है कि वह संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) से 31 दिसंबर, 2026 को बाहर हो जाएगा। यह निर्णय ट्रम्प प्रशासन की “अमेरिका फर्स्ट” नीति के अनुरूप है, जिसके तहत अमेरिका ने कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों से दूरी बनाई है। यह पहली बार नहीं है जब अमेरिका ने यूनेस्को से हटने का फैसला किया है; इससे पहले 1984 और 2017 में भी ऐसा हो चुका है। इस लेख में इस निर्णय के कारणों, इसके ऐतिहासिक संदर्भ और संभावित प्रभावों पर चर्चा की जाएगी।

 

### **निर्णय के कारण**

अमेरिकी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता टैमी ब्रूस ने बयान दिया कि यूनेस्को का “विभाजनकारी सामाजिक और सांस्कृतिक एजेंडा” और संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) पर “अत्यधिक ध्यान” अमेरिका की नीतियों के साथ मेल नहीं खाता। इसके अलावा, यूनेस्को द्वारा 2011 में फिलिस्तीन को पूर्ण सदस्य के रूप में स्वीकार करने को अमेरिका ने “इजरायल-विरोधी” और अपनी नीतियों के खिलाफ माना है। यह कदम अमेरिका की उस नीति को दर्शाता है, जिसमें वह उन अंतरराष्ट्रीय संगठनों से दूरी बनाना चाहता है जो उसके राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा नहीं देते।

 

इसके अतिरिक्त, यूनेस्को पर “इजरायल-विरोधी पूर्वाग्रह” का आरोप लगाया गया है। अमेरिका और इजरायल दोनों ने दावा किया है कि यूनेस्को ने बार-बार इजरायल के ऐतिहासिक स्थलों को फिलिस्तीनी धरोहर के रूप में नामित किया और इजरायल की आलोचना करने वाले प्रस्ताव पारित किए। उदाहरण के लिए, 2017 में हेब्रोन के पुराने शहर को फिलिस्तीनी विश्व धरोहर स्थल के रूप में नामित किया गया, जिसे इजरायल और अमेरिका ने अपने हितों के खिलाफ माना।

 

### **ऐतिहासिक संदर्भ**

अमेरिका का यूनेस्को के साथ संबंध हमेशा से उतार-चढ़ाव भरा रहा है। 1984 में, रोनाल्ड रीगन प्रशासन ने यूनेस्को पर सोवियत प्रभाव और इजरायल-विरोधी रुख का आरोप लगाते हुए संगठन से हटने का फैसला किया था। उस समय, यूनेस्को की नीतियों को पश्चिमी देशों के खिलाफ माना गया, विशेष रूप से तीसरी दुनिया के देशों के बढ़ते प्रभाव के कारण। 2002 में, जॉर्ज डब्ल्यू. बुश प्रशासन ने सुधारों का हवाला देते हुए फिर से यूनेस्को में शामिल होने का निर्णय लिया। हालांकि, 2017 में ट्रम्प प्रशासन ने फिर से हटने का फैसला किया, जिसे बाइडेन प्रशासन ने 2023 में उलट दिया था।

2023 में अमेरिका के फिर से शामिल होने का मुख्य कारण चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करना था। बाइडेन प्रशासन ने यूनेस्को को $619 मिलियन की बकाया राशि का भुगतान करने की योजना बनाई थी, जो संगठन के बजट का एक बड़ा हिस्सा था। लेकिन ट्रम्प के दोबारा सत्ता में आने के बाद, “अमेरिका फर्स्ट” नीति ने फिर से इस निर्णय को प्रभावित किया।

 

### **प्रभाव**

अमेरिका का यूनेस्को से बाहर होना संगठन के लिए वित्तीय और राजनीतिक चुनौतियां पैदा कर सकता है। हालांकि, यूनेस्को ने 2018 से अपनी वित्तीय निर्भरता को कम करने के लिए कदम उठाए हैं, और अब अमेरिका का योगदान इसके कुल बजट का केवल 8% है, जो पहले 22% था। फिर भी, यह कदम यूनेस्को की विश्वसनीयता और वैश्विक सहयोग की भावना को प्रभावित कर सकता है।

 

इजरायल ने इस निर्णय का स्वागत किया है, और विदेश मंत्री गिदोन सा’र ने इसे “न्याय और इजरायल के प्रति निष्पक्षता” की दिशा में एक कदम बताया। दूसरी ओर, यूनेस्को की महानिदेशक ऑद्रे अज़ोउले ने इसे “दुर्भाग्यपूर्ण” करार देते हुए कहा कि यह बहुपक्षीय सहयोग के सिद्धांतों के खिलाफ है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि यूनेस्को ने होलोकॉस्ट शिक्षा और यहूदी-विरोधी भावनाओं के खिलाफ महत्वपूर्ण काम किया है, जिसे अमेरिका की ओर से अनदेखा किया गया।

 

### **निष्कर्ष**

अमेरिका का यूनेस्को से बाहर होना ट्रम्प प्रशासन की बहुपक्षीय संगठनों के प्रति संदेह की नीति का हिस्सा है। यह कदम वैश्विक शिक्षा, संस्कृति और विज्ञान के क्षेत्र में सहयोग को प्रभावित कर सकता है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहां अमेरिका की भागीदारी महत्वपूर्ण थी। हालांकि, यूनेस्को ने इस तरह के झटकों से उबरने की तैयारी की है, और यह देखना बाकी है कि यह संगठन भविष्य में अपनी प्रासंगिकता और प्रभाव को कैसे बनाए रखे

उपराष्ट्रपति धनखड़ का इस्तीफा: स्वास्थ्य या सियासी दबाव? संसद में हलचल

भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 21 जुलाई 2025 को स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए अपने पद से तत्काल प्रभाव से इस्तीफा दे दिया। यह घोषणा संसद के मानसून सत्र के पहले दिन हुई, जिसने राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में व्यापक चर्चा और अटकलों को जन्म दिया। धनखड़ ने अपने इस्तीफे में संविधान के अनुच्छेद 67(क) के तहत पद छोड़ने की बात कही, जिसमें उन्होंने स्वास्थ्य देखभाल को प्राथमिकता देने और चिकित्सकीय सलाह का पालन करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनके इस कदम ने न केवल राजनीतिक हलकों में हलचल मचाई, बल्कि उनके कार्यकाल और स्वास्थ्य से जुड़े सवालों को भी सामने लाया।

 

जगदीप धनखड़, जो अगस्त 2022 में भारत के 14वें उपराष्ट्रपति बने थे, ने अपने कार्यकाल के दौरान कई महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। पेशे से वकील और पूर्व में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे धनखड़ का कार्यकाल विवादों से भी घिरा रहा। खासतौर पर, विपक्षी दलों ने उन पर पक्षपातपूर्ण रवैये का आरोप लगाया और उनके खिलाफ राज्यसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने की कोशिश भी की। इसके बावजूद, धनखड़ ने अपने पत्र में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संसद सदस्यों के प्रति आभार व्यक्त किया। उन्होंने अपने अनुभवों को “अमूल्य” बताया और भारत की आर्थिक प्रगति व विकास में योगदान को अपने लिए गर्व का विषय कहा।

 

धनखड़ के स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे हाल के महीनों में सुर्खियों में रहे हैं। मार्च 2025 में उन्हें सीने में दर्द की शिकायत के बाद दिल्ली के एम्स में भर्ती किया गया था, जहाँ उनकी एंजियोप्लास्टी हुई। इसके अलावा, 25 जून 2025 को उत्तराखंड के नैनीताल में कुमाऊं विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम के दौरान उनकी तबीयत अचानक बिगड़ गई थी, जिसके बाद उन्हें राजभवन में चिकित्सकीय देखभाल दी गई। इन घटनाओं ने उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंताएँ बढ़ाई थीं, और उनके परिवार ने भी उन्हें स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने की सलाह दी थी।

 

हालांकि, धनखड़ के इस्तीफे की टाइमिंग ने कई सवाल खड़े किए हैं। यह इस्तीफा संसद सत्र के पहले दिन आया, जब वे दिनभर संसद भवन में मौजूद थे और शाम 7:30 बजे तक कांग्रेस नेता जयराम रमेश से उनकी फोन पर बात हुई थी। विपक्षी नेताओं, जैसे जयराम रमेश और इमरान मसूद, ने इस अचानक फैसले पर आश्चर्य जताया और इसके पीछे अन्य संभावित कारणों की ओर इशारा किया। रमेश ने कहा कि स्वास्थ्य निश्चित रूप से प्राथमिकता है, लेकिन इस्तीफे के पीछे “जो दिखाई दे रहा है, उससे कहीं ज्यादा” हो सकता है। कुछ विपक्षी नेताओं ने सरकार पर इस मुद्दे को लेकर हमलावर रुख अपनाया, जिससे संसद में हंगामे की आशंका बढ़ गई है।

 

संविधान के अनुसार, उपराष्ट्रपति के इस्तीफे के लिए स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती, और धनखड़ का इस्तीफा तत्काल प्रभाव से लागू हो गया। अब 60 दिनों के भीतर नए उपराष्ट्रपति का चुनाव होना है, जिसमें संसद के दोनों सदनों के सदस्य भाग लेंगे। तब तक राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह कार्यवाहक सभापति के रूप में जिम्मेदारी संभालेंगे। धनखड़ का इस्तीफा भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जा रहा है, और नई नियुक्ति को लेकर चर्चाएँ तेज हो गई हैं।

 

धनखड़ के कार्यकाल को भारत के परिवर्तनकारी युग का हिस्सा माना गया, जिसमें उन्होंने देश की वैश्विक प्रतिष्ठा और आर्थिक प्रगति की सराहना की। उनके इस्तीफे ने उनके समर्थकों और आलोचकों दोनों के बीच बहस छेड़ दी है। जहाँ कुछ लोग उनके स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाएँ दे रहे हैं, वहीं अन्य इस बात पर विचार कर रहे हैं कि क्या यह इस्तीफा केवल स्वास्थ्य कारणों से था या इसके पीछे कोई राजनीतिक दबाव भी था।

विपक्ष संसद में ऑपरेशन सिंदूर और पहलगाम हमले पर चर्चा की मांग पर अड़ा, PM की उपस्थिति की भी मांग।

विपक्ष संसद में ऑपरेशन सिंदूर और पहलगाम हमले पर चर्चा की मांग को लेकर अडिग है। इन घटनाओं ने देश की सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाए हैं, जिसके चलते विपक्ष सरकार से जवाबदेही की मांग कर रहा है। विपक्ष का कहना है कि इन हमलों ने राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती दी है, और इस पर खुले तौर पर बहस जरूरी है। साथ ही, विपक्ष ने प्रधानमंत्री की संसद में उपस्थिति की मांग की है ताकि वह इन मुद्दों पर सरकार का पक्ष स्पष्ट करें। यह मांग संसद के मौजूदा सत्र में तनाव का कारण बन रही है

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने क्यों दिया इस्तीफा

 

 

भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 21 जुलाई 2025 को स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पत्र लिखकर संविधान के अनुच्छेद 67(क) के तहत तत्काल प्रभाव से त्यागपत्र सौंपा। धनखड़ ने अपने कार्यकाल के दौरान सहयोग के लिए राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सांसदों का आभार व्यक्त किया। उनके इस्तीफे से राजनीतिक हलचल तेज हो गई है। अब उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह राज्यसभा के कार्यवाहक सभापति होंगे। नए उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए जल्द प्रक्रिया शुरू होगी, जो 60 दिनों के भीतर पूरी होनी चाहिए।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने क्यों दिया इस्तीफा

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने क्यों दिया इस्तीफा

भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 21 जुलाई 2025 को स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पत्र लिखकर संविधान के अनुच्छेद 67(क) के तहत तत्काल प्रभाव से त्यागपत्र सौंपा। धनखड़ ने अपने कार्यकाल के दौरान सहयोग के लिए राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सांसदों का आभार व्यक्त किया। उनके इस्तीफे से राजनीतिक हलचल तेज हो गई है। अब उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह राज्यसभा के कार्यवाहक सभापति होंगे। नए उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए जल्द प्रक्रिया शुरू होगी, जो 60 दिनों के भीतर पूरी होनी चाहिए।